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चकविलियम का डाक्टर - समीक्षा

  • लेखक की तस्वीर: अर्चना श्रीवास्तव
    अर्चना श्रीवास्तव
  • 11 जन॰
  • 4 मिनट पठन


विधा - कहानी

लेखक - श्री नरेंद्र शास्त्री


'चकविलियम का डॉक्टर' पढ़ते ही मानस पटल पर अतीत की यादें उभर आती हैं। 'श्री नरेंद्र शास्त्री' (मेरे पिता) जब इस कहानी को लिख रहे थे, तो मैं स्कूल में थी। कहानी का सार समझ में नहीं आता था, लेकिन उनके द्वारा सुनकर मन आह्लादित होता था। उसी समय प्रसिद्ध साप्ताहिक पत्रिका 'रविवार' (कलकत्ता) में यह धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ था।


30 से 35 वर्ष के उपरांत, सन् 2022 में इसे पुनः प्रकाशित किया गया। 'चकविलियम का डॉक्टर' कहानी संग्रह में अन्य आठ कहानियाँ और हैं, जो समय-समय पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं, या रेडियो स्टेशन 'गोरखपुर' से इसका प्रसारण हुआ है।


इस कहानी संग्रह के बारे में मैं कुछ लिखूं, शायद न्याय न कर पाऊं। बस अपने भाव व्यक्त कर रही हूं, कोई त्रुटि हो तो क्षमाप्रार्थी हूं। इस कहानी संग्रह की सभी कहानियाँ यथार्थपूर्ण हैं। लगभग 35 से 45 वर्ष पूर्व लिखी गई ये कहानियाँ आज के परिप्रेक्ष्य में भी सार्थकता व्यक्त करती हैं।


इनमें अध्यात्मिक प्रेम है, तो संघर्ष से लड़ने की प्रेरणा, जीवन में हार न मानते हुए आगे बढ़ने का संकल्प, मिट्टी की खुशबू है तो शहर की चकाचौंध, राजनीतिक गलियारे की सच्चाई, गरीबी, बिखराव, संघर्ष के बावजूद कहानियों में रोचकता बनी रहती है। इसमें लोकभाषा और लोकोक्तियों का भी प्रयोग है। 'भाषा शैली' आंचलिक है।


'चकविलियम का डॉक्टर' - एक लंबी कहानी है, जो पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव की है, जहाँ बाढ़ का खतरा सदैव मंडराता रहता था। 'चकविलियम' जो एक अंग्रेज डॉक्टर थे, भारत में रहकर उन्हें जड़ी-बूटियों का भी ज्ञान हो गया था, और उस छोटे से गाँव में 'अस्पताल' तो था, लेकिन दवा का अभाव था। उस स्थिति में गाँववालों का इलाज जड़ी-बूटियों से ही करते थे। महात्मा गांधी से इतने प्रभावित हो गए कि भारत ही रह गए, और उन्हीं के नाम पर उस गाँव का नाम रखा गया।


चकविलियम गाँव में शहर से कोई डॉक्टर आने को तैयार नहीं होता था। डॉक्टर अनिल के साथ जब सारे डॉक्टर विदेश जाने का सपना देखते थे, तो डॉक्टर अनिल गरीब और मजलूमों के प्रति जो दर्द महसूस करते थे, उससे अपने को अलग नहीं कर पाए और छोटे से गाँव में जाने के लिए तैयार हो गए। उनके साथ नर्स लता भी थी।


"जिस देश में नौकरी पाने के लिए एड़ियाँ घिसनी पड़ें, उस जगह की अहमियत देना निरी मूर्खता नहीं तो और क्या है? क्यों नहीं अप्लाई करते किसी फॉरेन कंट्री में?"

मगर न जाने क्यों अनिल उस दिशा में सोच ही नहीं पाते थे। न जाने क्यों उनके सामने अनेक उपेक्षित चेहरे आकर खड़े हो जाते थे। न जाने कितनी डबडबाई आँखें मूक आमंत्रण सी देती प्रतीत होती थीं और उन्हें अक्सर याद आ जाती थी महान चिकित्सक डॉक्टर बनर्जी की बात: "जाओ अनिल, बहुत सी डबडबाई आँखें तुम्हारा इंतजार कर रही हैं।"


'नाटक का एक पात्र' – आदर्श और यथार्थ के बीच फँसकर फैसला न कर पाने के कारण अधर के हाथ से सबकुछ निकल गया, फिर भी अधर अपने पात्र को ईमानदारी से निभाता है।

"उल्लसित मन से कार्यालय पहुँचकर 'प्रधान संपादक' को गुलदस्ता देते हुए बोला 'बहुत-बहुत बधाई'।"


'अपना-अपना सच' – नैतिक मूल्यों पर चलने वाले अमर को, गरीबी के कारण दवा के अभाव में माँ की मौत हो जाती है, और अमर को अपनी नैतिकता का त्याग करना पड़ता है। यही जीवन की सच्चाई है।

"मुझे क्षमा करना सीमा! कल्पना की दुनिया का नैतिक ताना-बाना निराशा में डूबे असमर्थ आदमी के लिए एक ढाल बन सकता है, लेकिन रोटी...?"


'सपना भी सच होता है' – एक मध्यवर्गीय परिवार जिसकी सीमित आय होती है, वह हर दौर में गरीबी से जूझता है। ऐसे व्यक्ति के लिए कोई भी त्यौहार मायूसी ही लेकर आता है।

"क्या अपनी सीमित आय और असीमित महंगाई से तालमेल बिठा पाएगा?"


'हत्या' – बेरोजगारी गृहकलह का मूल कारण है। एक ऐसे युवा की कहानी, जो बेरोजगार है और जो अपने घर को स्वर्ग की तरह बनाना चाहता है। लेकिन बेरोजगार होने के कारण अपने सपनों और रिश्तों का हत्या होते देखता है।

"सोचा साफ कह दूं आप और पिताजी ने मिलकर माँ की हत्या कर दी। आप दोनों के साथ रहना नहीं हो सकेगा, पर कह न सका, चुप रहना ही अच्छा समझा, बेकार जो था।"


'कर्मफल' – रामलाल असामाजिक कार्य और अंग्रेज अफसरों की जी-हुजूरी में लिप्त था। अंततः उसे अपने कर्मों की सजा यही मिल गई।


'घिर-घिर आई बदरिया' – गाँव की व्यथा, जहाँ के युवा अपनी नई-नवेली दुल्हन को छोड़कर काम की तलाश में भटकते हुए बड़े-बड़े शहरों के कारखानों में लग जाते हैं और वहीं मर-खप जाते हैं।

"कर्ज में पैदा हुआ, कर्ज में बड़ा हुआ, और कर्ज में ही मर गया। सारी लड़ाइयाँ लड़ी गईं सत्ता और दौलत के लिए, हुआ कोई युद्ध आदमी को आदमी का दर्जा दिलाने के लिए?"


'रोटी' – आदर्शवादी पिता जो गरीबी में भी कोई गलत कार्य नहीं करता, जिसका बेटा रोटी के लिए कालाबाजारी करने वाले के यहाँ नौकरी कर लेता है।

"बेटे को देखते ही बूढ़ा बीमार बाप डंडा लेकर उठ खड़ा हुआ, फुफकार कर बोला, तो अंत समय तूने मुझे चोर बाजारी से रोटी खिलाई?"


'कलंकिनी' – एक औरत की आत्मसम्मान की कहानी।

"कीरत की पत्नी ने जानकी की ओर बिना देखे ही कहा, तुम यहाँ से चली जाओ। तुम यहाँ रहोगी तो मेरे बेटों की शादी नहीं होगी।"


कथाकार 'श्री नरेंद्र शास्त्री' की इन कहानियों में कहीं हर्ष है तो कहीं मर्मांतक पीड़ा, कहीं संवेदना है तो कहीं करुणा। गाँव उनके दिल में बसता था। आप इन कहानियों को पढ़कर महसूस कर सकते हैं, वह आपको अपने करीब ही लगेगा। आप सभी अवश्य पढ़ें 'चकविलियम का डॉक्टर' और अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करें। खुशी होगी।



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